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भारत ,भारत की शिक्षानीति और शिक्षक

By Naren Narole

एक राष्ट्र को महान या प्रगत बनाने के लिए कही तरह की विशेषताओं को विकसित करने की आवशक्यता होती हैं। शिक्षा उन्हीं में से एक अति महत्वपूर्ण विशेषता होती है जो सभी नागरिको राष्ट्र ने प्रदान करनी ही चाहिए। शिक्षा राष्ट्र की दूरदर्शिता और मिशन (प्रगति का मार्ग ) को तय करती हैं। राष्ट्र को एक करने के लिए भी सभी को समान शिक्षा निति का लाभ मिलना अतिआवश्यक है। भारत जैसे विविधताओं (भौगोलिक ,सामाजिक ,धार्मिक,भाषाई )से परिपूर्ण राष्ट्र में सर्वसमत्ती से एक शिक्षानीति लागु करना यह काफी कठिन कार्य है। पिछले ७० साल से भारतीय सरकार का उस दिशा में कार्य ने वो स्थान अभी तक हासिल नहीं किया है।

 

भारत और भारत की  शिक्षानीति

आजादी के बाद से देश की अशिक्षा की समस्याओं को दूर करने के लिए ,  भारत की शिक्षा प्रणाली को आधुनिक बनाने के लिए कई तरह के प्रयास किये गये  ।  उन्हमें  विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-1949), माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-1953), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग , कोठारी आयोग (1964-66) और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT -1961) प्रमुख हैं ।

1968 में शिक्षा पर पहली राष्ट्रीय नीति की घोषणा की गयी , जिसमे  राष्ट्रीय एकीकरण ,सांस्कृतिक और आर्थिक विकास ,14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा,क्षेत्रीय भाषाओं के विकास  को पूरा करने के लिए “तीन भाषा सूत्र” को माध्यमिक शिक्षा में लागू करने का और प्राचीन संस्कृत भाषा के शिक्षण को भी प्रोत्साहित  करने का आह्वान किया गया।  1968 के एनपीई ने शिक्षा व्यय को राष्ट्रीय आय के छह प्रतिशत तक बढ़ाने का आह्वान किया।

1986 में,  शिक्षा पर एक नई राष्ट्रीय नीति पेश की जिसमे  “विशेष रूप से भारतीय महिलाओं को शिक्षा , सामाजिक एकीकरण,  मुक्त विश्वविद्यालय प्रणाली का विस्तार ,प्राथमिक शिक्षा में “बाल-केंद्रित दृष्टिकोण”, महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित “ग्रामीण विश्वविद्यालय” मॉडल के निर्माण के लिए भी नीति बनाई गई थी।  1986 की शिक्षा नीति से शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6% खर्च होने की उम्मीद थी।

1986 – राष्ट्रीय शिक्षा नीति को 1992 में भारत सरकार द्वारा संशोधित की गई थी।  2005 में, सरकार ने “सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम” पर आधारित एक नई नीति अपनाई। देश में व्यावसायिक और तकनीकी कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय आधार पर एक आम प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की परिकल्पना की गई है। जिसका मुख्य उद्देश्य छात्रों और उनके माता-पिता पर शारीरिक, मानसिक और वित्तीय बोझ को कम करना  था।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने , 2019 में “नई शिक्षा नीति 2019”  एक मसौदा जारी किया , जिसके बाद कई सार्वजनिक परामर्श और  चर्चा-आधारित मसौदा तैयार किया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य   आवश्यक शिक्षा, महत्वपूर्ण सोच और अधिक समग्र अनुभवात्मक, चर्चा-आधारित और विश्लेषण-आधारित शिक्षा को बढ़ाना हैं । 

यह बच्चों के संज्ञानात्मक विकास के आधार पर छात्रों के लिए सीखने का अनुकूलन करने के प्रयास में 10 + 2  प्रणाली से 5 + 3 + 3 + 4  प्रणाली में परिवर्तित कर  शैक्षणिक संरचना के संशोधन के बारे में भी बात करता है।29 जुलाई 2020 को, कैबिनेट ने मौजूदा भारतीय शिक्षा प्रणाली में कई बदलाव लाने के उद्देश्य से एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को मंजूरी दी ।1968 से एनपीई ने शिक्षा व्यय को राष्ट्रीय आय के छह प्रतिशत तक बढ़ाने का आह्वान किया। यह बात हमेशा की गयी की छह प्रतिशत तक करेंगे ,लेकिन अभी तक ये व्यय तीन प्रतिशत से ज्यादा नहीं है।

शिक्षक और शिक्षक के प्रकार

शिक्षक यह शिक्षातंत्र का महत्वपूर्ण आधार होता हैं।शिक्षक के बिना शिक्षातंत्र नहीं चल सकता है। फिर यह सवाल आता है  की  शिक्षक  बनता कोण है। हम शिक्षक बनने वाले लोगो को चार श्रेणियों में बाट सकते है।

पहले वो जो की अच्छा खासा ज्ञान रखते हो। जिन्हे पढ़ना और पढ़ाना अच्छा लगता हो। जो की जटिल ज्ञान को सरल भाषा में  विद्यार्थी को समजा सकता हो । जिसे औरो को पढ़ाने में मजा आता है।  विद्यार्थी को वो अपनी बात समजा पाया ये जान के ,जिसके  मन को शांति या सुकून मिलता है।ऐसे लोग औरो को पढ़ाने में अपना सबकुछ भूल जाते है। और शिक्षा देना इनका परम धर्म जैसा होता है।  ऐसे लोग घर में और बाहर हमेशा शिक्षा को प्राथमिकता देते है।

दूसरे वह होते है , जिन्हे लगता है की वो ज्यादा पढ लिख लिए है और दुसरो को भी पढ़ा सकते है। लेकिन यह उनकी सोच होती है की वो पढ़ा सकते है।ऐसे लोग सिर्फ अपना पोर्टफोलियो अच्छा करने के पीछे  रहते है।  ये लोग अपने  ज्ञान को बढ़ाने में लगे रहते हे।  विद्यार्थी कितना समझ  पा रहे है इससे उनका कुछ भी लेना देना नहीं रहता है।  यह लोग  प्रमाणपत्र और  कागजात को ज्यादा महत्व देते हे।

तिसरे वो होते है जिन्हे कुछ और नहीं जम रहा है ,तो उन्हें लगता है की  चलो  शिक्षक ही बन जाते है । इन्हे पढ़ाने में कुछ भी रूचि नहीं होती है। इसलिए ये लोग ज्यादा तर प्रशासनिक कार्य में रूचि लेते है और जो अच्छे शिक्षक होते हे उन्हें ये कैसे पढ़ाना ये सिखाते हैं। जैसे की बच्चों को बिना पढ़ाये कैसे खुश रखे और खुद का ज्यादातर काम कैसे करे और संचालक मंडल को कैसे खुश रखे। ये वर्ग के शिक्षक हमारे देश के भविष्य  को ज्यादा नुकसान पुहचाते है।

चौथे किस्म के वो होते हैं  जो स्वाभाव से आलसी होते है। इन्हे  कुछ भी  काम करने ही नहीं होते है । जो पढ़ाना भी नहीं चाहते है बस शिक्षक बन कर अपना जीवन आराम से गुजरना चाहते हैं।  तो ऐसे लोग शिक्षण क्षेत्र मैं लगने वाली निम्न योग्यता हासिल कर के ये कार्यक्षेत्र में शामिल हो जाते हैं। अपनी कमिया उजागर ना हो इसलिए ये हर किसी से बहुत सख्ती से  पेश आते है।  कोई भी विद्यार्थी इनसे प्रतिप्रश्न नहीं कर पता है। यह ज्यादातर अनुशासन मंडल में सेवा प्रदान करते हैं।


शिक्षक संस्थान में नौकरी के लिए आवश्यकता

अब ऊपर बताये अनुसार  इस तरह के शिक्षकगण हमारे समाज में है। अभी तक देखने में यह आया है की किसी भी आम आदमी को  हमारे देश में शिक्षक बनने के लिए, शिक्षण संस्थान में नौकरी मिलने के लिए शिक्षा के अतिरिक्त  पहचान और पैसा ये दोनों  चीजे अतिआवश्यक है ।सरकारी संस्थान में नौकरी (अनुदानित शाला ,कॉलेज  ) के लिए पैसा ज्यादा लगता है, पर ये एक बार का निवेश जैसा होता है। जिसके पास होता हे ,वो देता है और जीवन भर पगार प्राप्त करता है बिना काम किये। और करेगा भी क्यों उसने तो पैसा दे दिया है ना। भ्रष्टाचार छुपाने के लिए कुछ सीधे मार्ग से आये हुये लोगो को नौकरी मिल जाती है पर उनसे उसकी भरपाई मासिक किश्तों में ली जाती है।

 में भी शिक्षा क्षेत्र में ही पिछले २० साल से कार्यरत हु, पर उच्च तकनीकी शिक्षा क्षेत्र में पहले भ्रष्टाचार थोड़ा कम था। मेरे जॉब के  शुरवाती दिनों में , इंजीनियरिंग कॉलेज में  कार्यरत रहते हुये   मैंने जमा हुई  सैलरी  बैंक से खुद  निकालकर  संस्था को वापस की है। मतलब बैंक रिकॉर्ड में मुझे फुल पेमेंट होता है पर मेरे हाथ में  १/४ ही आता था। अभी तो  कुछ संस्थाए कर्मचारियों के एटीएम कार्ड्स भी अपने पास रखते हे और जब चाहिए तब पगार से निकासी कर लेते है। १० -२० % संस्थान को छोड़ दे तो बाकि जगह अब भ्रष्टाचार काफी विकराल रूप ले लिया है।  भ्रष्टाचार के कई मार्ग है ,लोगो को अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए क्या क्या नहीं करना पड़ता है। ऐसे हालात के वजहः से भी अच्छी फैकल्टी ये प्रोफेशन से दूर चली जाती है।

ज्यादातर गैर सरकारी (विना-अनुदानित शाला ,कॉलेज) में नौकरी के लिए पहचान ज्यादा मायने रखती हे। यहाँ पगार  बहुत कम रहती है। इसलिए ज्यादातर महिलाये ही शिक्षक का पात्र निभाती है। यहाँ मेरे विधान को गलत न लिया जाए। महिलाये भी अच्छी शिक्षक होती है, पर वो भी कम पगार के कारण अपना पूरा प्रयास नहीं कर पाती। और करे भी क्यों अगर उनके कार्य का उचित मूल्य ही उन्हें नहीं मिल पाता है।

महिला और पुरुष शिक्षक

ज्यादातर महिलाये इस पगार को अतिरिक्त आय जैसे ही समजती है। और अपनी अतिरिक्त खर्चो का वहन वो इस पगार से करती है।   पुरुष शिक्षक इतने कम पगार की नौकरी से अच्छी कोई और नौकरी ढूंढते है। जिसके कारण पुरुष शिक्षक नाममात्र के लिए ही शालाओ में दिखते है। वही पुरुष शिक्षक ज्यादातर प्राइवेट ट्यूशन के धंधे में दिखते है।

बच्चो का विकास अच्छे से तभी होता है जब उन्हें समाज में स्त्री और पुरुष का समान सहयोग या सहवास  प्राप्त हो। सिर्फ महिला शिक्षक होना या सिर्फ पुरुष शिक्षक होना उनके मानसिक विकास को बाधा पुहचता है।शिक्षक ,विद्यार्थी के लिए प्रेरणास्रोत होते है। अगर सिर्फ महिला शिक्षक या सिर्फ पुरुष शिक्षक होंगे तो विद्यार्थी की  सोच सिर्फ उनके जैसे ही होगी जो कि भविष्य के समाज के लिए काफी विघटनकारी होगी।

जैसे शिवछत्रपती शिवजी महराज  के सर्वांगीण विकास में  जिजामाता का योगदान था ,वैसे ही  उनके पिता शहाजी महाराज  और उनके पुरुष गुरू जन का जरूर होगा। क्योंकि सर्वांगीण विकास का श्रेय सिर्फ एक गुरु को या सिर्फ एक व्यक्ति को नहीं दे सकते।आज प्रायवेट स्कूल और कॉलेजेस में महिला शिक्षक का प्रतिशत ९५ % से ज्यादा है। जिसका असर सब को नहीं दिख पा रहा है।

शिक्षक ,संस्थाचालक  और राजनीती

प्राइवेट शाला और कॉलेजेस ये पैसा कमाने के लिए बनाये जाते है।  और ये ज्यादातर उन्ही लोगो के होते है जो  देश की राजनीती में होते हे या जिन्हे राजनीती करनी होती है।ये सब अपना रसूख का उपयोग कर के  सरकार से सभी प्रकार की अनुमति प्राप्त कर लेते है। वैसे सरकार भी इन्ही लोगो की होती है। आप खुद ही देख लीजिये कितने राजनितिक लोगो का ये समाज सेवा करने का अद्भुत तरीका है।

स्कूल और कॉलेज संचालक के हिसाब से शिक्षक को पढ़ाने के अलावा कुछ और काम नहीं होते है  ,पढ़ाना ये भी उनके हिसाब से बहुत बड़ा काम नहीं होता है।मतलब उनके हिसाब से शिक्षक को फोकट में पगार देनी पड़ती है। इसलिये शिक्षक को सभी तरह के कामो में महारत हासिल करनी पड़ती हे जो की संस्था चलाने के लिए आवश्यक होती है ।

विद्यार्थी के सांस्कृतिक कार्यक्रम के अलावा संस्था संचालक के जन्मदिवस पे इन सभी शिक्षक को नाच गाने के प्रोग्राम करने पड़ते हे। ऊपर से इस तरह के कार्यक्रम शिक्षक के मनोरंजन के लिए ही होते है ऐसा प्रचार किया जाता है।शिक्षकों की पगार का कुछ हिस्सा संस्था संचालक के नाम पर उनके चुनाव क्षेत्र में समाजसेवा के नाम पर  दान किया जाता है।

ये जो भी है सभी को पता है फिर भी लिख रहा हु की ये सब बड़े लोग समज सके की शिक्षक को ये सब पता होता हे ,पर वह तो आज के भारत का शिक्षक है। जिसे यह सब सहना ही होगा  क्योंकि वह तो सिर्फ शिक्षक है। जिसे समाज में सब से हलके में लिया जाता है।ऐसी स्थिति के लिए ये शिक्षक वर्ग भी  ज्यादातर जिम्मेदार है। जिनको अपने कार्य की महत्ता नहीं पता ना ही अपने कार्य का  मूल्य पता होता।जिन्हे  है वो अपना कोचिंग सेण्टर खोलते है और वही पे ये सभी लोग अपने बच्चो के साथ लाइन में खड़े रहते हे एडमिशन के लिए।

शिक्षक और कोरोना

अभी कोरोना काल में शिक्षक को दोहरा काम करना पढ़ रहा है।  सभी शिक्षक को बिना वेतन ऐसे काम करने पढ़ रहे जो आज तक उन्होंने नहीं किये।स्कूल ,कॉलेज में जा के ऑनलाइन क्लासेस लेनी पढ़ रही है।  और उनके लिए जरूरी सामग्री खुद के खर्चे से बनाके उन्हें डिजिटल फॉर्म में परिवर्तित कर के अपने स्कूल और कॉलेज में जमा कराने पड़ते है।स्कूल ,कॉलेज में ऑनलाइन पढ़ाने के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर ना होने के कारण शिक्षक को खुद ही अपने खर्चे से करना पड़ रहा है। और अगर नहीं करोगे तो आपकी जॉब जा सकती है।

इस सब में यहाँ संचालक ये भूल जाते है की शिक्षक का भी परिवार है उनके बच्चो को भी ऑनलाइन पढाई करनी है। जब की शिक्षक खुद इतने व्यस्त चल रहे की वो अपने बच्चों के तरफ ध्यान ही नहीं दे पा रहे है।हमारे यहाँ जब शिक्षक सामने रह के पढ़ता है तब, कुछ  ही विद्यार्थी समज पाते है। पालक बच्चोको अतिरिक्त टूशन लगा देते है। तब भी परिणाम उनके मन को नहीं भाता है।  क्योंकि हमारी पालक वर्ग की उम्मीद बहुत ज्यादा होती है। जो वो नहीं कर पाये वो बच्चों से हासिल करना चाहते है।अब ऑनलाइन पढाई में तो शिक्षक स्क्रीन  पर  ही है।  कितना ज्ञान शिक्षक से विद्यार्थी तक पुहच पा  रहा होगा ,इसका आंकलन किस विधि से किया जाए  ये भी सोचने  की बात है।

शिक्षातंत्र के विकास के लिए कुछ सुझाव 

शिक्षा निति  हमेशा बनती है।  परंतु वो कितना लागु हो पाती  है ये भी एक रिसर्च का टाइटल बन सकता है। शिक्षक के बिना शिक्षानीति की बात नहीं हो सकती।शिक्षक बनने  के लिए सरकार को एक केंद्रीय प्रोसेस बनानी चाहिए। जिसमे शिक्षक की सभी जरूरी गुणों का अवलोकन हो और शिक्षक जहा रहता है उसी क्षेत्र में उसे नौकरी प्रदान हो ताकि वो भी अपने परिवार को वक़्त दे सके ।

शिक्षक बनने के लिए उम्र का बंधन नहीं होना चाहिए किसी को किसी भी उम्र में पढ़ाने की इच्छा हो सकती हे। तो उन्हें केंद्रीय प्रोसेस में  मौका जरूर मिलना चाहिए।शिक्षक और शोधकर्ता याने रिसर्चर में कुछ फरक होता है। यह ये संचालक समज हि नहीं पाते है। सभी शिक्षक रिसर्चर नहीं होते है या सभी रिसर्चर शिक्षक नहीं होते है।लेकिन संस्था को वही शिक्षक चाहिए जो की रिसर्चर भी हो। ताकि उनकी संस्था एक उचित श्रेणी प्राप्त कर सके। 

पर यही पर विधार्थी के हित के बारे में नहीं सोचा जाता है। शिक्षक जबरदस्ती रिसर्चर बनने की कोशिश करते है और उसका बोझ विधार्थी पर डाल देते है।ठीक इसी तरह संस्था की अच्छी श्रेणी के लिए शिक्षक ही जिम्मेदार होते है। सारे कागजात उन्हें ही बनाने पड़ते है और विधार्थी को पढ़ाने की जगह वो सिर्फ कागजात ही बनाते रहते है।

लेकिन यही संस्था चालक ये नहीं समजते की शैक्षणिक संस्था की गुणवत्ता शैक्षणिक विकास से होगी ना की सिर्फ  कागजात से।सिर्फ कुछ पैसे बचाने के लिए  गुणवत्ता दाव पे लगा दी जाती है। और इसका नतीजा ये होता है की अच्छी उची  ग्रेडेशन या श्रेणी होने के बावजूद विद्यार्थी नहीं मिल पाते है।  और संस्थाए बंद कर दी जाती है।

शिक्षक का भी क्रेडिट बैंक होना चाहिए ,जिसमे उन्हें क्रेडिट मार्क्स  ,विद्यार्थी ,पालक ,संचालक और इतर  सह कर्मचारी की और से मिलाना चाहिए।शिक्षक किन किन विषयो में पारंगत है उसके प्रमाणपत्र ,प्रमाणपत्र देने वाले संस्थाने ही  केंद्रीय प्रणाली में हर साल अपलोड करने चाहिए।

शिक्षक वर्ग को एक उच्चीत सम्मान देने के लिए कुछ सामाजिक नियम बनाने चाहिए। शिक्षक को गर्व का अनुभव हो इसलिए शिक्षक परिवार को शैक्षणिक स्तर पर कुछ ज्यादा छूट देनी चाहिए।  उन्हें होम लोन ,पर्सनल लोन ,वेहिकल लोन पर ज्यादा छूट देने से समाज के कई  लोग शिक्षा क्षेत्र से जुड़ने का प्रयत्न करेंगे या आकर्षित होंगे।

शिक्षा क्षेत्र में कुछ लोग अपना एकाधिकार चाहते है जिस वजह से ये लोग जान भूझकर कुछ ऐसे नियम बनाते हे की ज्यादा लोग वाहा तक पुहच ही न पाए। उधारणार्थ  राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान या भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसे संस्थान में आप तभी फैकल्टी बन सकते है जब आप की एक डिग्री इन्ही संस्थान से आपने प्राप्त की हो। अगर आपने  इयता  १० वी और १२ वी में कम मार्क्स लाये  और डिग्री में आप यूनिवर्सिटी में टॉप भी क्यों ना  किया  हो आप अच्छी जगह नौकरी प्राप्त नहीं कर सकते।

 यहाँ कोई ये समजना ही नहीं चाहता की हो सकता है की आपकी स्थिति उस वक़्त पढने लायक नहीं होगी,या कुछ कठिनाई होगी । हर जगह के लिए सभी आवेदन कर सके, सभी वो परीक्षा दे सके ,हो सकता है की अब की बार हम  तैयार हो।  कुछ संस्थाओ में कुछ ही जाती विशेष को ही सिफारिश मिल पाती है।  और ये सब इस तरह से किया जाता है की वो वैसे दिख नहीं पाता है।

इस लेख में शिक्षानीति , शिक्षक ,शिक्षक वर्ग के प्रोब्लेम्स और कुछ समाधान के सुझाव दिए है। ये मेरी अपनी राय है। जो की में भारत सरकार तक पुह्चना चाहता हु ताकि शिक्षा के लिए कुछ उचित कदम उठाये जाये न की इसे सिर्फ एक उद्योग बनाया जाये जहा की सिर्फ पैसे के लिए शिक्षक और विद्यार्थी का उत्पीड़न होता रहे।