By Naren Narole
इस ब्लॉग में जो भी लिखा है यह किसी व्यक्ति विशेष ,जाती धर्म या किसी राजनितिक दल के विरुद्ध नहीं है। यह मुख्यतः हम भारतीयों को आने वाले प्रश्न है जो सभी देशवासियो को हमेशा से झकझोरकर रखते है। विदर्भ राज्य का प्रश्न और नया संसद भवन ये दोनों मुद्दे एक दूसरे को हल कर सकते है क्या यही आज के ब्लॉग का प्रश्न है। दिल्ली एक राजधानी के तौर पर कितनी सुरक्षित है ,और विदर्भ राज्य का निर्माण ,विदर्भ राज्य की राजनैतिक स्थिथि और उसका विकास कैसे हो सकता है इस पर ये ब्लॉग लिखा है। अगर किसी की भी, किसी भी तरह से, भावना आहात हुई होगी तो हम क्षमाप्रार्थी है।
Should India relocate his New Parliament House from Delhi to Vidharbha
भारतीय सरकार बहुत खर्चा कर के नया भारतीय संसद भवन का निर्माण करने जा रहे है।,अभी करीब करीब अनुमानित लागत ९७१ करोड़ रुपये है।
यह नया संसद भवन भारत की राजधानी दिल्ली में बनने वाला है। दिल्ली भारत की राजधानी काफी पहले से है। राजधानी होने के वजह से सभी तरह के लोग दिल्ली में ही रहना चाहते है।
राजधानी होने के नाते यहाँ सभी तरह के लोगो की भीड़ इतनी बढ़ गयी है की दिल्ली में लोगो का दम घुटने लगा है।
ट्रैफिक जाम और प्रदुषण की परेशानी दिल्ली में हर कोई झेल रहा है। राजधानी दिल्ली, ये शहर सीधे पाकिस्तान या चीन से ,उनकी मिसाईल की मारक क्षमता में आती है।
और बहुत सारी कठिनाईया, परेशानिया ज्यो की मैंने नहीं लिखी ,ये सब होने के बावजूद भी हमारी भूतपूर्व या अभी की सरकारे राजधानी कही और स्थानांतरित करने की नहीं सोच रहे है ये भविष्य के खतरों को और आने वाली चुनौतियो को अनदेखा करने जैसा है।
आप को लग रहा होगा की अचानक से में दिल्ली की बात कैसे कर रहा हु। नागपुर में रहते दिल्ली का ख्याल इसलिए आया ,क्योंकि दिल्ली में नए संसद भवन की आधारशिला हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने रखी है।
दिल्ली में पहले ही इतना कुछ बनाया गया है की पहले ही दिल्ली उस बोझ से कराह रही है। ऊपर से अब नया संसद भवन भी बन रहा है तो राजधानी दिल्ली के मन में क्या चल रहा होगा ये बात मेरे मन में आयी।
चलो अब अपने घर के तरफ आते है। एक राष्ट्रिय राजनैतिक दल ने हमारे विदर्भा को अलग राज्य बनाने की सिफारिश कर के ,विदर्भ की लोकसभा और विधानसभा की ज्यादा से ज्यादा सीट हासील कि थी ।
पर सत्ता मिलते ही हमारे विदर्भ के नेता ,विदर्भ को भूल के महाराष्ट्र के कम ,पर मुंबई के ज्यादा बन गये। वहा सभी विदर्भ के नेताओ के घर भी बन गये तो उन्हें विदर्भ के बारे में अपने वादे याद ही नहीं रहे।
अब हालात ऐसे बन गए है की ,ये विदर्भ के नेताओ का अब विदर्भ से ही जनाधार घट जानेकी आशंका बन गयी है। अगली बार वो चुनाव जीत पाएंगे की नहीं ये भी ख्याल शायद उन्हें आ रहा होगा।
वैसे उन्हें अतिआत्मविश्वास है पर वो भूल गए की जनता ही उन्हें ऊपर बिठाती है तो निचे भी बिठाना जनता को आता ही है।अब सालो साल का हिसाब नहीं रहा। जो भी होगा बस पाँच साल में ही होगा।
प्रश्न ये भी है की महाराष्ट्र राज्य के ,विदर्भ से मुख्यमंत्री रहते ,उन्होंने अपने और से विदर्भ के लोगो के लिए अलग से क्या किया।
जैसे की शिक्षा ,रोजगार ,स्वास्थ ,किसान और क्षेत्र का विकास जैसे कुछ मुद्दो पर क्या किया ? अभी कुछ लोग उनका पूरा लेखा जोखा ले के जनता के सामने बैठ जायेंगे।
जनता को भी दिखता है की उन्होंने केंद्र से आने वाली हर योजना को लागू किया पर राज्य के और से ऐसी कोई भी पहल किसी भी क्षेत्र में नहीं हो पाई।
प्रचार प्रसार वो बराबर कर रहे थे पर लोगो को उनके काम शायद दिखे नहीं। जो भी काम हुए वो तो केंद्र के और से हर राज्य में हो ही रहे है।
विकास तो धीरे धीरे पुरे भारतवर्ष में हो ही रहा है ,पर हमारी जो अपेक्षाएं थी की ,हमारा मुख्यमंत्री जो की विदर्भ से है वो विदर्भ वासियों की मन की बात जानता होगा ,जो उन्होंने जुबान दी थी वो उसे याद रखेंगे और पूरा करके हमें न्याय देंगे।
विदर्भ एक अलग राज्य बने ये काफी पुराणी मांग है। वैसे अगर ये बहुत पहले हो गया रहता तो राज्य के हित में होता पर जब तक पूरी तरह से निचोड़ न लेते तब तक ये होने से रहा।
अभी विदर्भ काफी लूट चूका है। और जल्दी से सभी राजनितिक दल विदर्भ को अलग राज्य का दर्जा दे भी देंगे।
बड़े राज्य को संभालना ये काफी जिम्मेदारी का काम है। फिर एक मुख्यमंत्री से सभी प्रांत में बराबर ध्यान दे पाना मुश्किल हो जाता है।
जैसा की उत्तरप्रदेश में हालत है। वहा भी सुशासन तभी आएगा जब उसके कम से कम तीन भाग किये जाए। परन्तु ऐसी क्या बात होती है की ये राजनैतिक दल राज्य को विभाजित करने में देरी करते है ,ये भी समझना पड़ेगा।
राज्य का वर्गफल और राज्य की जनसँख्या इसके अनुपात में नये राज्य का निर्माण होना चाहिये।
राज्य बनाने से कोई राज्य देश के बाहर नहीं जा रहा है। सिर्फ कार्य , कार्य क्षेत्र और सुविधा का नव निर्माण ही तो हो रहा है।
छोटे राज्य बनाने से ज्यादा से ज्यादा लोग लोकतंत्र कार्यप्रणाली में सहभागी होंगे और हर कोई अपनी जिम्मेदारिया ठीक से निभा पायेगा।
महाराष्ट्र से अलग होने की बात इसलिए थी क्योंकि जो नेतृत्व महाराष्ट्र की बागडोर संभाल रहा था वो सिर्फ अपने क्षेत्र का ही विकास कर रहा था।
उनके हिसाब से ,उनके राजनितिक जीवन की सफलता के लिए उन्हें ये ही करना पड़ता था। यह कोई दोष नहीं है। मनुष्य की सोच के हिसाब से ही वह अपना उचित कार्य कर रहे थे।
पर उसके वजह से विदर्भ प्रान्त का सिर्फ शोषण हुवा। एक चित्र में विदर्भ की स्थिति अच्छे से बताई गयी थी ,उस चित्र में विदर्भ को गौमाता के रूप में दिखाया गया था जिसका मुख विदर्भ के तरफ था और पार्श्र्व भाग पश्चिम के तरफ दर्शाया गया था।
उसका मतलब ऐसा था की गौमाता को चारा तो विदर्भा से मिल रहा था पर गोधन का पूरा लाभ पश्चिम महाराष्ट्र को मिल रहा था।
जैसे पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओ ने अपने क्षेत्र का उचित विकास किया ,उसी तरह से हमारे विदर्भ के नेता मुख्यमंत्री बन हमारे ख्वाब पूरा करेंगे ऐसा सभी लोग सोच रहे थे।
पर हमारे सपने तोड़कर रख दिए क्योंकि तब वो पुरे महाराष्ट्र का सोच रहे थे, की कैसे अब सालो साल यहाँ का मुख्यमंत्री बन के राज कर पाएंगे ।
महाराष्ट्र पर राज करना है तो मुंबई को संभालना होगा परंतु मुंबई को हासिल किये बगैर महाराष्ट्र पर राज करते हुए ,जहा से आये उसे ही भुला बैठे।
उन्होंने जनता से ज्यादा अपने सपनो को ज्यादा महत्व दिया ऐसा नहीं लगता क्या ? करे ,अपने सपनो को भी पुरे करे ,घर वालो के भी पुरे करे ,कोण नहीं बोलता ,पर जब हम राजनीती में है तब देशसेवा ,जनता की ख़ुशी को ज्यादा देखना पड़ता है।
पुराने राजनितिक लोगो से या अभी के राजनितिक पंडित जो सरकार को चला रहे है उनसे सीखना चाहिए की कैसे अपना और राज्य का ,दोना का विकास करना चाहिए ,और जनता को क्या क्या दिखाना चाहिए।
कितने लोगो को वादा किया था की , देश की सबसे पुराणी राष्ट्रिय पार्टी ने आपको स्थायी नहीं किया पर हमारी सरकार आप लोगो को स्थायी नौकरी देंगी।
हम सरकारी नोकरियो पर लोगो को रोजगार देंगे पर जैसे ही सरकार बनी ५ साल चली भी पर ,उन लोगो को सिर्फ टालते रहे। “मुझे याद है, मुझे याद है “, “में देख रहा हु ” ऐसा कहते रहे पर वो वादा पूरा ना कर सके।
वैसे तो बहुत सारे आश्वासन दिए जाते है। उन आश्वासनों को बाद में खुद चुनावी जुमला कह कर बच जाते है। चुनाव में तो ये सब बोलना पड़ता है।
उनमे से एक बात जनता को अच्छी तरह से याद है ,जो कि सोशल मीडिया पर काफी दिन घूम रहा था और कोरोना काल में जनता को ज्यादा याद आया ।
याद है अस्थायी डॉक्टर्स के संप के बीच में जा के हमारे माजी मुख्यमंत्री अपने साथियो के साथ क्या क्या कह रहे थे। तब राज्य में सबसे पुराणी राष्ट्रिय पार्टी की सरकार थी।
सरकार की यंत्रणा को वो गांधीजी के बंदर के तरह बर्ताव कर रहे है , ऐसा कह रहे थे। “इस सरकार को कुछ सुनायी नहीं देता, कुछ दिखाई नहीं देता और कुछ बोलते भी नहीं है।
हमारी अगर सरकार आएगी ,तब हम सभी डॉक्टर्स जो की इतने साल से अस्थायी कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे है उनको स्थायी नौकरी देंगे , हम ये करेंगे ,हम वो करेंगे “,सरकार भी आयी और ” में फिर से आऊंगा, में फिर से आऊंगा ” यह कहते सरकार गयी भी ,फिर भी कुछ नहीं हुआ।
अब जो सरकार है वो भी वही गलतिया कर रही है ,जनता की समस्याओ से ज्यादा अपनी सरकार ,अपना परिवार और उनके हित को ही साधने में लगी है।
शायद उनको भी भविष्य के बारे में पता है। अपने युवा नेतृत्व को ज्यादा से ज्यादा जनता के साथ जोड़ने के बजाय कही और ही लगे है।
युवा ही किसी को भी सत्ता तक पुहचा सकते है। कुछ साल युवा नेतृत्व ने राज्य के युवाओ में निवेश करना चाहिए तब जा के राज्य में कुछ राजनीती कर पायेंगे।
अब अगर किसी राजनितिक दल को विदर्भ से चुन कर आना होगा तो विदर्भ के विकास का सपना पूरा करना ही होगा।
अभी के नागपुर पदवीधर मतदार संघ के चुनाव के हालत से सब को पता चल गया होगा, क्यों राष्ट्रिय राजनितिक दल , जो की इतने साल से हमेशा नागपुर पदवीधर मतदार संघ की सीट जीतता आया था, वो इस चुनाव में हार गया ।
जब जनता ने देखा की एक शिक्षित पदवीधर नेता ने कैसे दूसरे शिक्षित पदवीधर सरकारी अधिकारी को विकास कार्य और सरकारी कार्य में सुधार करने से रोका तो , शिक्षित जनता ने भी आँख बंद कर के सिर्फ शिक्षित पदवीधर नेता को हराने के लिए वोट किया।
जनता को पता है की जो इस चुनाव में जीत जो शिक्षित पदवीधर नेता आया है ,वो भी पदवीधर मतदार संघ के लिए या पदवीधर के लिए कुछ नहीं करने वाले है ,पर बस जनता को अपनी ताकत दिखानी थी और जो पारिवारिक राजनीती भारतीय जनता पार्टी में पनपने लगी थी उसे ख़त्म करना था।
अभी भी नेताओ ने समझ लेना चाहिए की आपसी झगड़े उन्हें कहा पुहचा देगी। विकास तो होता रहेगा और हमारी जनता इतनी सहनशील है की और थोड़ी देरी भी सह लेगी पर ऐसा काम न करो जो जनता को पसंद नहीं ,जैसे खुद को जनता के ऊपर समझना। अगले चुनाव में सब हिसाब कर देती है।
अभी किसी भी राजनीतिक दल को , विदर्भ फिर से जितना है तो उसके विकास के लिए सोचना ही होगा। नहीं तो यहाँ की जनता फिर से पुरानी पटरी पर चली जाएगी।
दिल्ली के अभी के हालात देखते हुए ऐसा लगता है की अब राजधानी के लिए वो पर्याप्त नहीं है।
थोड़ी भी परेशानी हुई तो दिल्ली बंद कर दी जाती है। शाहीन बाग़ और अभी किसान आंदोलन से सबको पता तो चल ही गया होगा ।
विदर्भ को भारत की राजधानी बना लेते है तो यहाँ इतना प्रदेश खाली पड़ा है की अच्छा खासा विकास के साथ राजधानी की सारी सुख सुविधाऔ का निर्माण किया जा सकता है ।
नागपुर को छोड़कर विदर्भ के अन्य भाग जैसे की अमरावती ,चंद्रपुर ,गडचिरोली ,अकोला ,गोंदिया ,यवतमाल वर्धा ,भंडारा बुलढाणा, वाशिम और रामटेक जैसे शहर में अगर संसद भवन और सांसद के रहने जैसे निर्माण किये जाए तो बेरोजगारी ,शिक्षा ,कृषि और इंडस्ट्रियल जैसे क्षेत्र में विकास और दक्षिण भारत में आसानी से राजनितिक पुहच बना पाएंगे।
राजधानी बनाने से नक्सलवाद का जो प्रभाव महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ़,आंध्रप्रदेश कर्नाटका तक है वो भी काफी हद्द तक ख़त्म हो जायेगा।
पकिस्तान और चीन से जो खतरा हमेशा बना रहता है वो भी पूरी तरह से ख़त्म हो जायेगा। जैसे किसी पेड़ को बड़ा और मजबूत बनाने के लिया उसकी नींव मजबूत होनी चाहिए वैसे ही किसी देश को मजबूत और सुरक्षीत रहने के लिए उसकी राजधानी पूरी तरह से सुरक्षित और मध्य में रहनी चाहिए |
विदर्भ प्रदेश सभी तरह से सभी खतरों से सुरक्षित प्रदेश है। सिर्फ विदर्भा में सूखे की परेशानी हो सकती है पर अगर राजधानी बन जाये तो वैसी कोई परेशानी देश के नेता यहाँ नहीं आने देंगे। क्या लगता है आपको।